प्राचीन समय की बात है किसी गांव में देवदत्त नामक एक ब्राह्मण अपनी पत्नी सुहाना के साथ रहते थे। उनकी पत्नी व्यभिचारी थी। एक दिन ब्राह्मण भिक्षा के लिए गए हए थे। मौका पाकर ब्राह्मण की पत्नी कुसंगत में पड़कर व्यभिचार कर्म में लिप्त हो गई। उसके व्यभिचार कर्म के कारण उस गांव में आग लग गई और उस व्यभिचारिणी ब्राह्मणी का अन्त हो गया। अपने पाप कर्म के कारण उस ब्राह्मणी का जन्म चांडाल के घर में हुआ। वह अंधी होने के साथ-साध कुष्ठ रोग से ग्रसित थी। इस तरह से वह अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल भुगत रही थी। एक दिन वह भूख-प्यास से बेहाल.

भटकती-भटकती वेद्वति गांव पहुंची। उस दिन वैशाख मास की पुण्यदायिनी शुक्ला नवमी थी। वह शुधा में व्याकुल लोगों से गुहार लगाने लगी कि कृपा करके मुझे कुछ अन्न दे दो।
कहते-कहते वह चोडालिनी श्री स्वर्ण भवन के हजार पुष्प मंडित स्तम्भों के पास पहुँच गई और गुहार लगाई - "मुझे कुछ खाने को दे दो। तभी एक संत ने कहा- हे देवी! आज सीता नवमी का पावन पर्व है, इस दिन अन्न देने वाला पाप का भाग होता है। इसलिए तुम कल सुबह आना व्रत के पारणा के समय और ठाकुर जी के प्रसाद को ग्रहण करना।" उसके बहत बिनती करने पर किस ने उस चांडालिन को तुलसीदल और जल दिया। वहीं खा कर वह मर गई। लेकिन अनजाने में ही उससे सीता नवमी का व्रत हो गया था। उस व्रत के प्रभाव से उसके सभी पाप नष्ट हो गए। अगले जन्म में वह कामरूप के महारज की पत्नी कामकला के नाम से प्रसिद्ध हुई। उन्होंने कई मंदिरो का निर्माण करवाया और सारा जीवन धर्म के कार्यो में लगी रही। इसी पकार से जो मनुष्य सीता नवमी पर विधि-विधान से व्रत तथा पूजन करते हैं, वे सभी प्रकार के सुख तथा सौभाग्य को प्राप्त करते हैं।

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