एक बढ़िया थी । उसके शालिग्राम जी की सेवा थी । कार्तिक मास में वो पुष्कर स्नान का विचार कर पड़ोसन से बोली "मैं पुष्कर जा रही। हैं तू मेरे शालिग्राम जी को भेरे शालिग्राम जी को रख ले ।" पड़ोसन बोली मुझे सेवा पूजा मोती नहीं, बताओ वैसे कर दूंगी । बुढ़िया बोली "सवेरे इनको उठाना, गा से लोटा भरकर पाना लाना, आते समय बगीचे से पुष्प तुलसी लाना। भगवान को जल व कच्चे दूध से नहलाना, चंदन लगाकर पुष्प, तुलसी चढाना, दूध का भोग लगाना, दोपहर को रसोई जो भी बने उसका भोग लगाना, शाम को दिया जलाना, ऐसी सेवा पूजा करना ।" कहकर वह चली गई । पड़ोसन ने बुढ़िया के कहे अनुसार किया । पर भगवान की थाली से भगवान जीमते ही नहीं ।

दूध पिया ही नहीं ये देख वो चिन्ता में पडी बोली भगवान आपकी मालकिन आयेगी तो कहेगी मेरे भगवान को दुबला कर दिया । अभी एक महीना है । आप जीम लेओ तो मैं भी जीम और वह भूखी बैठी रही । भगवान ने सोचा अब तो दर्शन देने ही पड़ेंगे । छोटा सा मोर मुकुट पीतांबर धारी रूप लेकर पाटे पर बैठ गाय । दूध पी लिया व जीम लिया रोज ऐसा ही होता रहा । एक दिन भगवान ने कहा मैं गाय चरा लाऊं । तो पड़ोसन बोली 'थोड़े दिन तो रहोगे, क्यों जाते हो?' पर भगवान माने नहीं । हाथ में सोने की लाठी, कंधे पर हीरे मोती का पिताम्बर डाल गाय चराने जाते । महीना बीता, बुढ़िया घर आई, स्नान ध्यान से निमट कर सोचा शालिग्राम जी ले आऊं। पड़ोसन ले गई, पड़ोसन बोली शालिग्राम जी शाम को आयेगें तब ले जाना।

बढ़िया शालिग्राम जी के लिये जिद करने लगी और झगड़ा हो गया । लोग इकट्ठे हो गये तो पडोसन बोली, बुढ़िया को समझावों एक महीना निकाला जैसे शाम तक और सबर करे । बुढ़िया धरना देकर बैठ गई ।शाम पड़े भगवान आये. गाये उनकी जगह छोड़ भगवान मंदिर में वितज गये । पड़ोसन बुद्धि से बोली.ले जाओ तुम्हारे भगवान और भगवान से बोली भगवान बुद्धि को भी रूप दिखादो महीं तो मेरे प्रति ये अविश्वास कर। भगवान ने मोर मुकुट पीताम्बर भर, हाथ में सोने की लाठी लेकर
दर्शन दिया । भगवान ने भोले भक्तों को दर्शन दिये वैसे सबको देना ।
 

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