यह व्रत सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला है । मान-सम्मान में वृद्धि तथा शत्रु-क्षय करने वाला है । प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त हो स्वच्छ वस्त्र धारण करें । पवित्र स्थान को लेकर सूर्यदेव की पूजा करें। शान्त चित्त होकर परमात्मा का स्मरण करें । भोजन एक समय ही करें, तेल व नमक युक्त भोजन न ग्रहण करें । भोजन तथा फलाहार सूर्य अस्त होने से पहले ही कर लेना चाहिए । यदि भोजन करने से पहले सूर्य छिप जाये तो दूसरे दिन सूर्य के उदय हो जाने पर अर्घ्य देने के बाद ही भोजन करें । व्रत के अंत में कथा सुननी चाहिए ।

 

कहानी - एक बुढ़िया थी वह प्रत्येक रविवार को सवेरे ही गोबर से घर लीपकर, स्नान आदि कर भगवान की पूजा करती । फिर भोजन तैयार कर भगवान को भोग लगाकर, स्वयं भोजन करती थी । श्री हरि की कृपा से उसका घर सभी प्रकार के सुख एवं धन-धान्य से पूर्ण था, किसी प्रकार विघ्न या दुख नहीं था । सब प्रकार से घर में आनन्द रहता था । उसकी एक पड़ोसन, जिसकी गौ का गोबर वह बुढ़िया रोज लाया करती थी. उस बुढ़िया की सम्पन्नता से जलने लगी । यह विचार करने लगी कि वह वृद्धा सर्वदा मेरी गौ का गोबर ले जाती है, इसलिए अगले दिन से यह अपने गौ को घर के भीतर बाँधने लगी।

वह रविवार का दिन था । बुढ़िया गाय का गोबर न मिलने के कारण अपना घर न लीप सकी । उस दिन उसने न तो भोजन बनाया, न भगवान को भोग लगाया और न स्वयं भोजन किया । इस प्रकार उसने निराहार व्रत किया । रात्रि हो गई, वह भूखी ही सो गई । रात्रि में भगवान ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए और भोजन न बनाने तथा भोग न लगाने का कारण पूछा । वृद्धा ने कहा - उसे गोबर नहीं मिला इस कारण वह आपका भोग न लगा सकी । तब भगवान् ने कहा, 'हे माता ! हम तुमको ऐसी गौ देते हैं जो सभी इच्छाएँ पूर्ण करती है । क्योंकि तुम हमेशा रविवार को पूरा घर गौ के गोबर से लीपकर, भोजन बनाकर मेरा भोग लगाकर ही स्वयं भोजन करती हो, इससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ । मैं निर्धन को धन और बाँझ स्त्रियों को पुत्र देकर उनके दुःखों को दूर करता हूँ तथा अन्त समय में मोक्ष देता हूँ ।' स्वप्न में ऐसा वरदान देकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए ।

प्रात: जब वृद्धा की आँखे खुली तो उसने देखा कि आंगन में एक अति सुन्दर गौ और बछड़ा बंधे हुए हैं । गौ और बछड़े को देखकर वह वृद्धा अत्यन्त प्रसन्न हुई और उनके घर के बाहर बाँध दिया । वहीं उनके खाने के लिए चारा भी डाल दिया । जब उसकी पड़ोसन ने बुढ़िया के घर के बाहर एक अति सुन्दर गौ और बछड़े को बंधा देखा तो द्वेष
 के कारण उसका हृदय जल उठा । जब उसने देखा कि गौ ने सोने का गोबर किया है तो वह चोरी से उस गौ का गोबर उठाकर ले गई और अपनी गौ का गोबर उसकी जगह पर रख गई। वह प्रतिदिन ऐसा करती । सीधी- साधी बुढ़िया को उसकी इस चालाकी की खबर नहीं हुई । सर्वया ईश्वर ने सोचा कि चालाक पड़ोसन के कर्म से बुढ़िया ठगी जा रही है।

एक दिन भगवान ने संध्या के समय अपनी माया से बड़े जोर की आँधी चला दी । बुढ़िया ने आँधी के भय से अपनी गौ को घर के भीतर बाँध लिया । प्रातः काल उठकर जब वृद्धा ने देखा कि गौ ने सोने का गोबर दिया है तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही । अब वह प्रतिदिन गौ को घर के भीतर बाँधने लगी । पड़ोसन ने देखा कि बुढ़िया गऊ. को घर के भीतर बाँधने लगी है और उसका सोने का गोबर उठाने का दाव नहीं चलता तो वह ईर्ष्या और डाह से जल उठी । अन्य कोई उपाय न देख पड़ोसन ने उस देश राजा की सभा में जाकर शिकायत की । कि - "महाराज मेरे पड़ोस में एक वृद्धा के पास गऊ है जो नित्य सोने का गोबर देती है । आप सोना प्राप्त कर उससे प्रजा का पाल करिए । वह वृद्धा इतने सोने का क्या करेगी ।"

उसकी बात सुनकर राजा ने अपने दूतों को वृद्धा के घर से गऊ लाने का आदेश दिया । वृद्धा प्रातः: भगवान का भोग लगा भोजन ग्रहण करने जा रही थी कि राजा के कर्मचारी गऊ खोलकर ले गए । वृद्धा बहुत रोई-चिल्लाई किन्तु राजा के कर्मचारियों के सामने कोई क्या कहता? उस दिन वृद्धा गऊ के वियोग में भोजन न कर सकी और रात-भर-रो रोकर ईश्वर से गऊ को पुनः पाने के लिए प्रार्थना करती रही । राजा गऊ को देख बहुत प्रसन्न हुआ । लेकिन अगले दिन सुबह जैसे ही वह उठा महल गोबर से भरा दिखाई देने लगा । राजा यह देखकर । घबरा गया । भगवान ने रात्रि में राजा को स्वप्न में कहा - "हे राजा! गाय वृद्धा को लौटाने में ही तेरा भला है । उसके रविवार के व्रत से प्रसन्न होकर मैंने यह गऊ उसे दी थी" । प्रात: होते ही सजा ने वृद्धा को महल में बुलाकर बहुत से धन के साथ सम्मान सहित गाय-बछड़ा उसे लौटा दिया और अपने कार्य के लिए उससे क्षमा-प्रार्थना की । इसके बाद राजा ने उसकी पड़ोसन को बुलाकर उचित दण्ड दिया। इतना करने के बाद राजा के महल से गन्दगी दूर हुई । उसी दिन से राजा ने नगर निवासियों को आदेश दिया कि राज्य की समृद्धि तथा अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए रविवार का व्रत करें । व्रत करने से नगर के लोग सुखी जीवन व्यतीत करने लगे । अब कोई बीमारी तथा प्रकृति का प्रकोप उस नगर पर नहीं होता था । सारी न प्रजा सुख से रहने लगी ।

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