भगवान् कृष्ण बोले-हे धर्मपुत्र ! पौष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम पुत्रदा है । पुत्र की कामना पूरी करने वाली है। इसके महात्म्य की कथा ऐसे है--एक समय भद्रावती नगरी में एक संकेतमान राजा राज्य करता था, उसकी स्त्री का नाम शेव्या था। विश्व विभूतियों से भवन भरा था। द्वार पर चिन्ता मणियों का प्रकाश था, परन्तु राजा की आँखों में अन्धेरा सा प्रतीत होता था, कारण कि उसके पुत्र नहीं था और वह स्वर्ग के सुखों को नरक के समान कहता था । पुत्रेष्ठी यज्ञ हजारों किये सफल एक न हुआ। देवताओं को लाखों प्रणाम की, आशीर्वाद एक भी न मिला। बेचारा हार गया और बुरे-बुरे विचार करने लगा क्या करूं ? विष खालूं और भूत बन जाऊँ तो अच्छा है परन्तु यह चिन्ता अच्छी नहीं।

 

फिर विचार करने लगा आत्मघात करना महापाप है, इस चिन्ता से छूटने का उपाय वनवासियों से पूछू । घोड़े पर सवार होकर वन विहार करने लगा, पशु-पक्षी इत्यादि जीवों को पुत्रों के साथ खेलते हुए देखा मन में कहने लगा--मेरे से यह भी सौभाग्यशाली हैं। आगे चला तो एक सरोवर मिल गया, उसमें मछलियाँ, मेढ़क इत्यादि पुत्रों के साथ विलास कर रही थीं, विचार किया यह भी मेरे से अच्छे हैं। सरोवर के चारों तरफ मुनियों के आश्रम थे राजा घोड़े से उतर कर मुनियों की शरण में गये और प्रणाम कर पूछा, आप कौन हो ? मुनि बोले-हम विश्व के देवता हैं, इस सरोवर को पतित-पावन समझ कर स्नान के लिए आये हैं। आज पुत्रदा एकादशी का है, जो पुत्र की इच्छा पूर्ण करती है । राजा बोला- क्या यह दिव्य फल मुझे भी व्रत करने से मिल जायेगा ।

 

विश्वदेव बोले- हमारी बात सत्य होगी, परीक्षा करके प लो। राजा ने श्रद्धा से पुत्रदा एकादशी का व्रत कर रात्रि को जागरण किया प्रातः भवन में चला गया । नौ मास के बाद उसके पुत्र उत्पन्न हुआ राजा के दिल को धैर्य मिला, पितृ भी प्रसन्न हो गये। इस कथा को सुनने से भी स्वर्ग मिलता है ।

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