यह पूजन भाद्रपद की शुक्ल अष्टमी से प्रारम्भ होकर अश्विन की। कृष्णाष्टमी तक चलती है । सतवरीया कच्चे सूत के गले बनाता है। इसमें सोलह धागे होते हैं जिसमें सोलह गाठे होती है ।

 

विधि - लक्ष्मी जी की मूर्ति को स्नान कराकर नये वस्त्र पर जाते हैं । फिर लक्ष्मी जी को भोग लगाकर ओर आचमन कराकर फर दीप, चन्दन आदि से आरती करते हैं । प्रसाद को आरती के बाद विका करते हैं । रात्रि को चन्द्रमा निकलने पर उसे अध्ध्य देकर स्वयं भोक करें । इस व्रत के करने से धन धान्य की वृद्धि होती है और सुख संपत्ति आती है।

 

कहानी - एक समय महर्षि श्री व्यास जी हस्तिनापुर पधारे महाराज धृतराष्ट्र उनका आदर सत्कार कर राजमहल मे ले आये । तव गान्धारी व माता कुन्ती ने हाथ जोड़कर कहा हे महामुने ! आप त्रिकालदर्शी है, अत: आप हमको कोई ऐसा सरल व्रत व पूजन बताइये, जिससे हमारी राज्यलक्ष्मी, सुख, पुत्र, पौत्र व परिवार सदा सुखी रहे। तब व्यासजी ने कहा मैं एक ऐसे वृत्त का वर्णन करता हूँ, जिससे घर में लक्ष्मीजी का निवास होकर सुख-वैभव की वृद्धि होगी, वह महालक्ष्मी का व्रत है, जो प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण अष्टमी को किया जाता है। हे महामुनी ! इस व्रत की विधि हमें सविस्तार बताने की कृपा करें। तब व्यासजी बोले - हे देवी ! यह व्रत भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से आरंभ करें । इस दिन सुबह मन में व्रत का संकल्प कर किसी पवित्र जलाशय, नदी, तालाब, कूप-जल से स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहने, फिर ताजा दूब से महालक्ष्मी को जल छिड़ककर स्नान करायें, फिर 16 धागों का गण्डा बनाकर प्रतिदिन एक-एक गांठ लगाये । इसी प्रकार 16 दिन तक 16 गांठ का झंडा तैयार कर आश्विन कृष्ण अष्टमी को व्रत करें, मण्डप बना उसके नीचे मिट्टी के हाथी पर श्री महालक्ष्मी प्रतिमा स्थापित करके पुष्प मालाओं से लक्ष्मीजी व हाथी का पूजन कर अनेकों प्रकार के पकवान नैवेद्य समर्पित करें । इस प्रकार श्रद्धा भक्ति सहित महालक्ष्मी जी का व्रत एवं पूजन करने से आप लोगों की राज्यलक्ष्मी सदा स्थिर बनी रहेगी । इस प्रकार व्रत का विधान बताकर व्यासजी अपने आश्रम को आ गये ।
इधर समयानुसार भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से राजघराने व नगर की समस्त नारियों ने श्री महालक्ष्मी व्रत को आरंभ कर दिया । बहुत सी स्त्रियाँ गांधारी के साथ इस व्रत में साथ देने लगी तथा कुछ स्त्रियाँ माता कुन्ती के साथ व्रत आरम्भ करने लगी, इस तरह गान्धारी व कुन्ती में कुछ द्वेषभाव चलने लगा । ऐसा होते-होते जब, व्रत का सोलहवाँ दिन आश्विन कृष्णा अष्टमी का आया तो उस दिन प्रात: काल से ही नगर की स्त्रियों ने उत्सव मनाना शुरू कर दिया और सभी नर-नारी राजमहल में गांधारी के यहाँ आकर तरह-तरह के महालक्ष्मी के मण्डप और मिट्टी के हाथी बनाने लगे। गान्धारी ने नगर की सभी प्रतिष्ठित स्त्रियों को बुलाने के लिये सेवक भेजा, परन्तु माता कुन्ती को नहीं बुलाया गया राजमहल में वाद्यों की ध्वनि गूंजने लगी, सारे हस्तिनापुर में खुशी मनाई जा रही थी। इधर माता कुन्ती ने अपना अपमान समझकर बड़ा रंज मनाया और व्रत की तैयारी नहीं की । इतने में महाराज युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव पांचों पाण्डव उपस्थित हुए, अपनी माता को रंज में उदास देख अर्जुन बोला - हे माता ! आप इतनी दुखी क्यों हो? तब माता कुन्ती ने कहा - हे पुत्र ! यह अति अपमान है, इससे बढ़कर और क्या दु:ख हो सकता है ? आज हमारे नगर में श्री महालक्ष्मी व्रत का उत्सव मनाया जा रहा है और उस उत्सव में राजरानी गांधारी ने समस्त नगर की स्त्रियों को सम्मान सहित बुलाया है, परन्तु द्वेष के कारण मुझे अपमानित करने के लिए उत्सव में नहीं बुलाया है । अर्जुन ने कहा हे माता ! क्या यह पूजा सिर्फ दुर्योधन के महल में ही हो सकती है? या उसे आप अपने घर में कर सकती है, परन्तु वह साज-सामान इतनी जल्दी तैयार नहीं हो सकता । क्योंकि गांधारी के सौ पुत्रों ने मिट्टी का एक विशाल हाथी तैयार करके पूजन के लिये सजाया है, वह सब तुमसे नहीं बन सकेगा उत्सव की तैयारी आज सुबह से ही हो रही है । अर्जुन बोले - हे माता।। आप पूजन की तैयारी कर सारे नगर को बुलावा लगवा दें, मैं आपको पूजन के लिए इन्द्रलोक से इन्द्र के ऐरावत हाथी को बुलाकर आपको पूजन के लिए उपस्थित किये देता हूँ, आप अपनी तैयारी करें । इधर माता कुन्ती ने भी सारे नगर में पूजा का ढिंढोरा पिटवा दिया और पूजा की विशाल तैयारी होने लगी । तब अर्जुन ने इंद्रदेव को ऐरावत भेजने के लिए लिखा और एक दिव्य बाण से बाँधकर उसे धनुष पर रखकर देवलोक की सभा में भेज दिया। इंद्रदेव ने बाण से पत्र खोलकर पढ़ा तो सारथी को तुरन्त आज दी कि ऐरावत को पूर्णरूप से सजा कर तुरन्त बाण के साथ हस्तिनापुर में उतार दो । तब महावत ने तरह-तरह के साज-सामान से ऐरावत को सजवाया और बाण मार्ग से हस्तिनापुर को चला । इधर सारे नगर में शोर मच गया कि कुन्ती के घर इन्द्र का ऐरावत हाथी स्वर्ग से पृथ्वी पर उतार कर पूजा जायेगा । इस समाचार को सुन नगर के सभी नर-नारी, बालक वृद्धों की भीड़ एकत्र होने लगी । गांधारी के महल में भी हल-चल मच गई । नगर की स्त्रियाँ पूजा थाली लेकर माता कुन्ती के भवन की ओर दौड़कर आने लगी । देखते-देखते सारा भवन पूजन करने वाली नारियों से ठसाठस भर गया । माता कुन्ती ने ऐरावत को खड़ा करने हेतु अनेक रंगो के चौक पुरवाकर नवीन रेशमी वस्त्र बिछवा दिया । हस्तिनापुर वासी स्वागत तैयारी में फूल माला, अबीर, केशर हाथों में लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे । इधर इन्द्र की आज्ञा पाकर ऐरावत स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरने लगा। ऐरावत के दर्शन होते ही सारे नर-नारियों ने जय-जयकार करना आरम्भ कर दिया । सायंकाल के समय ऐरावत माता कुन्ती के भवन के चाक में उतर आया, तब सब नर-नारियों ने पुष्प, माला, अबीर, केशर आप चढ़ाकर उसका स्वागत किया । पुरोहित द्वारा ऐरावत पर महालक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित करके वेद मंत्रों द्वारा पूजन किया गया। नगरवासियों ने भी लक्ष्मी पूजन का स्वागत करके ऐरावत की पूजा की, अनेक प्रकार के पकवान लेकर ऐरावत को खिलाये गये, ऊपर से यमुना जल पिलाया गया, फिर तरह-तरह के पुष्पों की ऐरावत पर वर्षा की गई । पुरोहित द्वारा सरस्वती वाचन करके नदियों द्वारा सोलहवीं गाँठ लगाकर लक्ष्मी जी के सामने समर्पण किया, ब्राह्मणों हेतु पकवान मेवा, मिठाई आदि की भोजन व्यवस्था की गई । फिर वस्त्र, द्रव्य, सुवर्ण, अन्न, आभूषण देकर नारियों ने महालक्ष्मी पर पुष्पांजलि अर्पित की । तत्पश्चात् पुरोहित द्वारा महालक्ष्मी का विसर्जन किया गया है । अंत में नारियों ने ऐरावत को विदा कर इन्द्रलोक को भेज दिया। महाराज सूत जी ने कहा - हे ऋषियों ! इस प्रकार जो स्त्री महालक्ष्मी का व्रत करती है, उसका घर लक्ष्मी जी की कृपा से सदा धन, धान्य मांगलिक वस्तुओं से पूर्ण रहता है ।

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