॥दोहा॥
बन्दट माँ शाकम्भरी चरणगुरु का धरकर ध्यान।
शाकम्भरी माँ चालीसा का करे प्रख्यान।।
आनन्दमयी जगदम्बिका-अनन्त भंडार।
माँ शाकम्भरी की कृपा बनी रहे हर बार

॥चौपाई॥
शाकम्भरी माँ अति सुखकारी, पूर्ण ब्रह्म सदा दुःख हारी।
कारण करण जगत की दाता, आनन्द चेतन विश्व विधाता।
अमर जोत है मात तुम्हारी, तुम ही सदा भगत हितकारी।
महिमा अमित अथाह अर्पणा, ब्रह्म हरि हर मात अर्पणा।
ज्ञान राशि हो दीन दयाली, शरणागत घर भरती खुशहाली।
नारायणी तुम ब्रह्म प्रकाश, जल-थल-नभ हो अविनाशी।
कमल कान्तिमय शान्ति अनूपा, जोत मर्यादा जोत स्वरूपा।
जब-जब भक्तों ने है ध्याई, जोत अपनी प्रकट हो आई।
प्यारी बहन के संग विराजे, मात शताक्षि संग ही साजे।
भीम भयंकर रूप काली, तीसरी बहन की जोत निराली।
चौथी बहिन भ्रामरी तेरी, अद्भुत चंचल चित्त चित्र।
सम्मख भैरव वीर खड़ा है, दानव दल से खूब लड़ा है।
शिव शंकर प्रभु भोले भण्डारी, सदा शाकम्भरी माँ का चेरा।
हाथ ध्वजा हनुमान विराजे, युद्ध भूमि में माँ संग साजे।
काल रात्रि धारे कराली, बहन माता की अति विकराली।
दश विद्या नव दुर्गा आदि, ध्याते तुम परमार्थ वादि।
अष्ट सिद्धि गणपति जी दाता, बाल रूप शरणागत माता।
भा भण्डारे के रखवारी, प्रथम पूजने के अधिकारी।
जग की एक भ्रमण की कारण, शिव शक्ति हो दष्ट विदारण।
भग देव लोकड़ा दुजा, जिसकी होती पहली पूजा। 
बजरंगी तेरा चेंग, चले संग यश माता तेरा।
पांच कोस की खोल तुम्हारी. तेरी लाला अति विस्तारी।
रक्त दन्तिका ताम्हीं बनी हो. रक्त पान कर असुर हनी हो।
रक्त बीज का नाश किया था, छिन मस्तिका रूप लिया था।
सिद्ध योगिनी सहस्या राजे, सात कण्ड में आप विराजे।
रूप मराल का तुमने धारा, भोजन दे दे जन जन तारा।
शोक पात से. मुनि जन तारे, शोक पात जन दुःख निवारे।
भद्रकाली कम्पलेश्वर आई. कान्त शिवा भगतन सुखदाई ।
भोग भण्डारा हलवा पूरी, ध्वजा नारियल तिलक सुंदरी।
लाल चुनरी लगती प्यारी, ये ही भेंट ले दुख निवारी।
अंधे को तुम नयन दिखाती, कोढ़ी काया सफल बनाती।
बाँझन को घर वाल खिलाती, निर्धन को धन खूब दिलाती।
सुख दे दे भगत को तारे, साधु सज्जन काज संवारे।
भूमण्डल से जोत प्रकाशी, शाकम्भरी माँ दुख की नाशी।
मधुर मधुर मुस्कान तुम्हारी, जन्म जन्म पहचान हमारी।
चरण कमल तेरे बलिहारी, जै जै जै जग जननी तुम्हारी।
कान्ता चालीसा अति सुखकारी, संकट दुख दुविधा सब टारी।
जो कोई जन चालीसा गावे, माता कृपा अति सुख पावे।
कान्ता प्रसाद जगाधरी वासी, भाव शाकम्भरी तत्व प्रकाश।
बार बार कहें कर जोरी, विनती सुन शाकम्भरी माता।
मैं सेवक हूँ दास तुम्हारा, जननी करना भव नितारा।
यह सौ बार पाठ करे कोई, मातु कृपा अधिकारी सोई।
संकट कष्ट को मात निवारे, शोक मोह शत्रु न संहारे।
निर्धन धन सुख सम्पति पावे, अद्धा भक्ति से चालीसा गावे।
नौ रात्रों तक दीप जगावे, पर्वत मगन हो गाना।
प्रेम से पाठ करें मन लाई, कान्त शाकम्भरी अति सुखदाई।

॥दोहा॥
दुर्गा सुर संहारण, करणि जग के काज।
शाकम्भरी जननि शिवे रखना मेरी लाज॥
युग युग तक व्रत तेरा, करे भक्त उद्धार।
वो ही तेरा लाड़ला, आवे रे द्वार॥