॥दोहा॥
श्री गुरु चरण सरोज छवि, निज मन मन्दिर धारि।
सुमरि गजानन शारदा, गहि आशीष त्रिपुरारि।।
बुद्धिहीन जान जानिये, अवगुणों का भण्डार।
बरणों परशुराम सुयश, निज मति के अनुसार ।।

॥चौपाई॥
जय प्रभु परशुराम सुख सागर, जय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर।
भृगुकुल मुकुट बिकट रणधीरा, क्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा।
जमदग्नी सुत रेणुका जाया, तेज प्रताप सकल जग छाया।
मास बैसाख सित पच्छ उदारा, तृतीया पुनर्वसु मनुहार।
प्रहर प्रथम निशा शीत न वामा तिथि प्रदोष व्यापि सुदामा।
तब ऋषि कुटीर रुदन शिशु कीन्हा, कोखि जनम हरि लीन्हा ।
निज घर उच्च ग्रह छः ठाढे, मिथुन राशि राहु सुख गाढ़े।
तेज-जान मिल नर तनु धारा, जमदग्नी वर ब्रह्म अवतार।
धरा राम शिशु पावन राम, नाम जपत जग लह विश्रामा।
भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दर, कांधे मूंज जनता मनहर।
मंजु मेखला कटि मृगछाला, नद्र माला बर वक्ष विशाला।
पीत बसन सुन्दर तनु सोहं, कंध तुणीर धनु मन मोहें।
वेद-पुराण-श्रुति-समृति जाता, कोथ मय तुम जग विख्याता।
दायें हाथ और परशु, ठठावा वेद-संहिता बायें सुहावा।
विद्यावान गुना जान अपराध, शास्त्र-शस्त्र नोट पर अधिकार।
भुवन चारिदस अरू नवखंडा, चहूं दिशि सुबश प्रताप प्रचंडा।
एक बार गणपति के संगा, जूझे भृगुकुल कमल पतंगा।
दांत तोड़ रण कीन्ह विरामा, एक दन्त गणपति भयो रामा।
कार्तवी र्अर्जुन भूपाला, सहस्त्र बाहु दुर्जन विकराला।
सुरगऊ लखि जमदग्नी पाही, रखिहहुं निज घर ठानि मन मांहीं।
मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाई, भयो पराजित जगत हंसाई।
तन खल हृदय भई रिस गाढ़ी, रिपुता मुनि सौ अतिसय बाढ़ी।
ऋषिवर रहे ध्यान लवलीना, तिन्ह पर शक्तिपात तप कीन्हा।
लगत शक्ति जमदग्नी निपाता, मनहुँ क्षत्रिकुल बाम विधाता।
पितु-बध मातु-रुदन सुनि भारा, भा अति क्रोध मन शोक अपारा।
कर गहि तीक्षण परशु कराला, दुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला।
क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हा, पितु-बध प्रतिशोध सुत लीन्हा।
इक्कीस बार भू क्षत्रिय बिहीनी, छीन धरा बिप्रन्ह कहँ दीनी।
जुग त्रेता कर चरित सुहाई, शिव-धनुष भंग कीन्ह रघुराई
गुरु धनु भंजक रिपु करि जाना, तब समूल नाश ताहि ठाना।
कर जोरि तब राम रघुराई, विनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई।
भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ता, भये शिष्या द्वापर महँ अनन्ता।
शस्त्र विद्या देह सुयश कमावा, गुरु प्रताप दिगन्त फिरावा।
चारों युग तव महिमा गाई, सुर मुनि मनुज दनुज समुदाई|
दे कश्यप सों संपदा भाई, तप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई।
अब लौं लीन समाधि नाथा, सकल लोक नावड नित माथा।
चारों वर्ण एक समाना, समदर्शी प्रभु तुम भगवाना।
ललहिं चारि फल शरण तुम्हारी, देव दनुज नर भूप भिखारी।
जो यह प. श्री परशु चालीसा, तिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा।
पूर्णेन्दु निसि बासर स्वामी, बसहु हृदय प्रभु अन्तरयामी।

॥दोहा॥
परशुराम को चारू चरित, मेटत सकल अज्ञान।
शरण पड़े को देत प्रभु, सदा सुयश सम्मान ।।

॥श्लोक ॥
भृगुदेव कुलं भानुं, सहस्त्रवार मर्दनम्।
रेणुका नयना नंदं, परशुंवन्दे विप्रधनम।।