पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं । कैसे शिर्डी साईं आए, सारा हाल सुनाऊं मैं ॥1॥ शिर्डी साईं बाबा चालीसा   कौन हैं माता, पिता कौन हैं, यह न किसी ने भी जाना । कहां जनम साईं ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना ॥ कोई कहे अयोध्या के ये, रामचन्द्र भगवान हैं । कोई कहता साईंबाबा, पवन-पुत्र हनुमान हैं ॥ कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साईं । कोई कहता गोकुल-मोहन, देवकी नन्दन हैं साईं ॥ शंकर समझ भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते । कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साईं की करते ॥ कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान । बड़े दयालु, दीनबन्धु, कितनों को दिया है जीवन दान ॥ कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात । किसी भाग्यशाली की, शिर्डी में आई थी बारात ॥ आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर । आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिर्डी किया नगर ॥ कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा मांगी उसने दर-दर । और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर ॥ जैसे-जैसे उमर बढ़ी, वैसे ही बढ़ती गई शान । घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान ॥ दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम । दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम ॥ बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन । दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दु:ख के बन्धन ॥ कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको सन्तान । शिर्डी साईं बाबा चालीसा  एवं अस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान ॥ स्वयं दु:खी बाबा हो जाते, दीन-दुखी जन का लख हाल । अन्त: करण श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल ॥ भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान । माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही सन्तान ॥ लगा मनाने साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो । झंझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरी पार करो ॥ कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया । आज भिखारी बन कर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया ॥ दे दो मुझको पुत्र दान, मैं ॠणी रहूंगा जीवन भर । और किसी की आस न मुझको, सिर्फ़ भरोसा है तुम पर ॥ अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश । तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष ॥ `अल्लाह भला करेगा तेरा`, पुत्र जन्म हो तेरे घर । कृपा होगी तुम पर उसकी, और तेरे उस बालक पर ॥ अब तक नही किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार । पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार ॥ शिर्डी साईं बाबा चालीसा  तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार । सांच को आंच नहीं है कोई, सदा झूठ की होती हार ॥ मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूंगा उसका दास । साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस ॥ मेरा भी दिन था इक ऐसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी । तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी ॥ सरिता सन्मुख होने पर भी मैं प्यासा का प्यासा था । दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नि बरसाता था ॥ धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था । बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था ॥ ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था । जंजालों से मुक्त मगर इस, जगती में वह मुझ-सा था ॥ बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार । साईं जैसे दया-मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार ॥ शिर्डी साईं बाबा चालीसा  पावन शिर्डी नगरी में जाकर, देखी मतवाली मूर्ति । धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साईं की सूरति ॥ जबसे किए हैं दर्शन हमने, दु:ख सारा काफूर हो गया । संकट सारे मिटे और, विपदाओं का अन्त हो गया ॥ मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से । प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साईं की आभा से ॥ बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में । इसका ही सम्बल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में ॥ साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ । लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ ॥ "काशीराम" बाबा का भक्त, इस शिर्डी में रहता था । मैं साईं का साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था ॥ सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम नगर बाजारों में । झंकृत उसकी हृद तन्त्री थी, साईं की झंकारों में ॥ स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी आंचल में चांद-सितारे । नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे ॥ वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से "काशी" । विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी ॥ घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल, अन्यायी । मारो काटो लूटो इस की ही ध्वनि पड़ी सुनाई ॥ लूट पीट कर उसे वहां से, कुटिल गये चम्पत हो । आघातों से ,मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो ॥ बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में । जाने कब कुछ होश हो उठा, उसको किसी पलक में ॥ अनजाने ही उसके मुंह से, निकल पड़ा था साईं । जिसकी प्रतिध्वनि शिर्डी में, बाबा को पड़ी सुनाई ॥ क्षुब्ध उठा हो मानस उनका, बाबा गए विकल हो । लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सम्मुख हो ॥ उन्मादी से इधर-उधर, तब बाबा लगे भटकने । सम्मुख चीजें जो भी आईं, उनको लगे पटकने ॥ और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला । हुए सशंकित सभी वहां, लख ताण्डव नृत्य निराला ॥ समझ गए सब लोग कि कोई, भक्त पड़ा संकट में । क्षुभित खड़े थे सभी वहां पर, पड़े हुए विस्मय में ॥ उसे बचाने के ही खातिर, बाबा आज विकल हैं । उसकी ही पीड़ा से पीड़ित, उनका अन्त:स्थल है ॥ इतने में ही विधि ने अपनी, विचित्रता दिखलाई । लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा-सरिता लहराई ॥ लेकर कर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहां आई । सम्मुख अपने देख भक्त को, साईं की आंखें भर आईं ॥ शान्त, धीर, गम्भीर सिन्धु-सा, बाबा का अन्त:स्थल । आज न जाने क्यों रह-रह कर, हो जाता था चंचल ॥ आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी । और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी ॥51॥ आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था “काशी” । उसके ही दर्शन के खातिर, थे उमड़े नगर-निवासी ॥ जब भी और जहां भी कोई, भक्त पड़े संकट में । उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में ॥ युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी । आपातग्रस्त भक्त जब होता, आते खुद अन्तर्यामी ॥ भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं । जितने प्यारे हिन्दु-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई ॥ भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला । राम-रहीम सभी उनके थे, कृष्ण-करीम-अल्लाहताला ॥ घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना । मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना ॥ चमत्कार था कितना सुंदर, परिचय इस काया ने दी । और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी ॥ सबको स्नेह दिया साईं ने, सबको सन्तुल प्यार किया । जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उनको वही दिया ॥ ऐसे स्नेह शील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे । पर्वत जैसा दु:ख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे ॥ साईं जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई । जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर हो गई ॥ तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो । अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो ॥ जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा । और रात-दिन बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा ॥ तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी । तेरी हर इच्छा बाबा को, पूरी ही करनी होगी ॥ जंगल-जंगल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को । एक जगह केवल शिर्डी में, तू पायेगा बाबा को ॥ धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया । दु:ख में सुख में प्रहर आठ हो, साईं का ही गुण गाया ॥ गिरें संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े । साईं का ले नाम सदा तुम, सम्मुख सब के रहो अड़े ॥ इस बूढ़े की करामात सुन, तुम हो जाओगे हैरान । दंग रह गये सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान ॥ एक बार शिर्डी में साधू, ढ़ोंगी था कोई आया । भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया ॥ जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वहां भाषण । कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन ॥ औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति । इसके सेवन करने से ही, हो जाती दु:ख से मुक्ति ॥ अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से बीमारी से । तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से हर नारी से ॥ लो खरीद तुम इसको इसकी, सेवन विधियां हैं न्यारी । यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी ॥ जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खायें । पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पायें ॥ औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछतायेगा । मुझ जैसा प्राणी शा